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मंगलवार, 13 अगस्त 2013

और क्या क्या भूलेंगे हम?

अभी कहीं एक लेख पढ़ा कि आज कामकाजी महिलाओं को मैटरनिटी काउंसलर की जरुरत महसूस हो रही हैं और वो उसके साथ १० से १५ दिन की काउंसलिंग सेशन ले रही हैं. यह काउंसलर उन्हें इतना ही बताएगी कि नौकरी के साथ बच्चे को कैसे पालें और अपने काम पर फोकस किस तरह किया जाए. आईडिया बुरा नहीं है. आज की कामकाजी माँ इसी अंतर्द्वंद मे फंसी रहती है कि वो अपने करियर या बच्चे के साथ अन्याय तो नहीं कर रही, शायद काउंसेलर उसे इस अपराध बोध से बाहर भी ले आए.

लेकिन यहाँ आपसे इस बात को शेयर करने का मेरा मकसद किसी  कामकाजी माँ की दुविधा को सामने रखना नहीं है बल्कि इस एक मामले के जरिये आज समाज में तेजी से पनप रही उस प्रवृत्ति पर चर्चा करना है जिसमे ना जाने इस जैसे और कितने काउंसलर की जरुरत पेश आ रही है.  इससे पहले मैरिज काउंसलर की जिक्र सुना होगा जो शादी से पहले लोगो को शादी की जिम्मेदारी लेने के लिए मानसिक तौर पर तैयार करते है. उसके अलावा पेरेंटिंग काउंसलर, ब्रेक अप काउंसलर, करियर  काउंसलर और भी न जाने कितने तरह के काउंसलर आज बाज़ार मे मौजूद हैं जो बस चंद रुपैयों के खर्च पर लोगो को जीने का तरीका सिख रही  हैं. कभी हम रिश्ते जोड़ने के लिए काउंसलर तलाश रहे हैं तो कभी टूटे रिश्तों के दर्द से बहार आने के लिए किसी मार्गदर्शक को तलाश रहे हैं 

और तो और जिस नौ महीने के मातृत्व सुख को अदभुत और अद्वितीय माना गया है उस नौ माह की अवधि को भी धैर्यपूर्वक बिताने के लिए भी काउंसलिंग सेशंस की जरुरत  लगी है उसके बाद प्रसव की काउंसलिंग और फिर प्रसव के बाद के आफ्टर इफेक्ट्स से बाहर निकलने की लिए भी काउंसलिंग।  सवाल उठता है की हम आखिर आज किस दौर में जी रहे हैं ?  एक तरफ आज हम एक प्रगतिवादी विचारधारा और समाज का हिस्सा हैं और वही दूसरी ओर हमे रिश्ते बनाने और निभाने के लिए हर समय किसी मार्गदर्शक की जरुरत पद रही है.  क्या आज हम पैसा कमाने वाला एक रोबोट भर तो नहीं  बन गए हैं जहाँ रिश्तों को निभाना और बनाना एक बेहद मुश्किल काम साबित हो रहा है. एक ओर हम घर और बाहर की दुनिया में मुश्किल से मुश्किल काम को पूरा करने की महारत रखते हैं तो वहीँ दूसरी ओर मौलिक मानवीय गुणों जैसे प्रेम, स्नेह, अपनापन , दायित्वबोध जैसी बातें हमारे माथे पर पसीना ले आते हैं.

कहीं ये खोखले होते मानवीय संबंधो की कीमत तो नहीं चुकानी पद रही? कहीं ये खुद को बाहरी दुनिया से बाहर कर लेने का नतीजा तो नहीं है? जो भी है वो शायद अच्छा नहीं है क्यूंकि ऐसे ही रहा तो आने वाले समय हम न जाने और क्या क्या भूल जायेंगे और तब तक शायद काउंसलर भी हमारी मदद ना कर पायें,  सवाल है कि कब तक और कितना मशीनी होंगे हम..???

प्रतीक्षा 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपके लेख घिसी-पिटी गोसिप से कुछ हटकर एक नए एंगल से लोगो को देखने का नजरिया प्रदान करती है।
    Dinesh Saxena

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  2. Ye aur kuch nahi status symbol he hai jaha kisi bhi cheez ke liye paisa kharch karney ko he tavazzo de jaati hai..anayatha agar nayi pidi apni purani pidi ko sammaan detey hue apney Sukh dukh may saamil karey toh aeisi koi bhi samasya paida he naa ho...Ati uttam lekhan..

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