रविवार का दिन था। सुबह अखबार पढ़ते हुए अनायास ही मेरी नज़र वैवाहिक विज्ञापन वाले पन्ने पर पद गई। ऐसे ही एक विज्ञापन मे एक वधु की तलाश की गई थी। विज्ञापन मे अपने स्नातक बेटे के लिए एक सुशील, संस्कारी और गोरे रंग की मांग की गई थी। साथ ही लड़की का शिक्षित होना भी अनिवार्य था। इस विज्ञापन के ठीक नीचे के विज्ञापन पर भी मेरी नज़र गई जहाँ लड़का थोडा अधिक पढ़ा लिखा था तो ज़ाहिर तौर पर लड़की के लिए गुणों का दायरा भी अधिक बड़ा था। लड़की इंग्लिश मीडियम की पढ़ी होनी चाहिए थी लेकिन गोरी चमड़ी की चाह यहाँ भी बरक़रार थी।
इन् विज्ञापनों को देखकर मन सोचने को विवश हो गया की क्या एक सांवले रंग की लड़की चाहे कितनी भी शिक्षित हो उसके रंग के कारण वो योग्य लड़के के लिए अपात्र है? फिर मुझे लगा की ये विज्ञापन एक वर्ग विशेष की मानसिकता को दिखा रहे हैं। सो मैंने तभी एक इंग्लिश न्यूज़ पेपर के मेत्रिमोनिअल पन्ने खंगालने शुरू किये। मेरा भ्रम था की इस अखबार को पढने वाले सभ्य और अधिक व्यावहारिक होते हैं क्यूंकि जब कोई खुद को समाज मे आधुनिक होने का दिखावा करना चाहता है तो उसके यहाँ इंग्लिश अखबार दिख जाता है। लेकिन जब विज्ञापनों को देखा तो लगा की औरत सिर्फ एक देह मे कैद रूह है।
यहाँ जो मांग की जा रही थी वो पहले से भी ज्यादा ही थी। लड़की के सुशिल, संस्कारी और सुन्दर होने जैसे गुणों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा था बल्कि उसके साथ जुड़ गए थे आधुनिक विचारधारा, कॉन्वेंट एजुकतेद और कामकाजी होने विशेषण, यानि अब उसके कंधो पर दोहरी जिम्मेदारी थी। लेकिन आकर्षक देह और गोरी चमड़ी उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी।
ये विज्ञापन मेरे लिए उस समाज की एक तस्वीर थे जिनके लिए औरत की देह ही सबकुछ है। उस देह मे कैद औरत की रूह किसी को नज़र नहीं आती । सवाल है की आज के दौर मे भी जब औरत आदमी के कंधे से कन्धा मिलकर चल रही है वहां भी उसकी बोद्धिक क्षमता पर देह हावी क्यूँ हो जाती है?
क्या कभी वो सुबह आएगी जब औरत को उसकी सूरत के लिए नहीं उसकी सीरत के लिए सम्मान मिलेगा ?
aaj की हर वो शिक्षित लड़की समाज से यही सवाल करती है की औरत की रूह देह से आज़ाद कब होगी? फर्क सिर्फ इतना है की मेरे जैसी औरत ये प्रश्न उस समाज के आगे उठा सकती हैं लेकिन एक बड़ा वर्ग केवल अकेले में रोकर अपने दर्द को कम करने की कोशिश ही कर सकता है....पर .......सवाल यही है की देह से कब मुक्त होगी रूह??????
प्रतीक्षा
बुधवार, 24 मार्च 2010
शनिवार, 20 मार्च 2010
मेरे अन्दर......
मेरे अन्दर जलता है एहसासों का लावा क्यूँ
जिंदा हु पर जीती नहीं
जीवन का यह छलावा क्यूँ
कहते हैं सब "बेटी" मुझको
फिर भी रिश्ता पराया क्यूँ
बराबरी जब दे नहीं सकते
फिर मुझको यूँ जाया क्यूँ
मुझको यूँ समझा जाता है
होनी का कराया क्यूँ
बेटी भी एक जीवन है
उसके जनम को समझो तुम
वो भी उर्दना चाहती है
उसके पर न कतरों तुम
वो भी पढना चाहती है
उसकी मेधा समझो तुम
है हक खुशियों पर उसका भी
यूँ न इस हक को चीनो तुम
मेरे अनदर जलता है एहसासों का लावा क्यूँ..
जिंदा हु पर जीती नहीं
जीवन का यह छलावा क्यूँ
कहते हैं सब "बेटी" मुझको
फिर भी रिश्ता पराया क्यूँ
बराबरी जब दे नहीं सकते
फिर मुझको यूँ जाया क्यूँ
मुझको यूँ समझा जाता है
होनी का कराया क्यूँ
बेटी भी एक जीवन है
उसके जनम को समझो तुम
वो भी उर्दना चाहती है
उसके पर न कतरों तुम
वो भी पढना चाहती है
उसकी मेधा समझो तुम
है हक खुशियों पर उसका भी
यूँ न इस हक को चीनो तुम
मेरे अनदर जलता है एहसासों का लावा क्यूँ..
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