अक्सर जब कभी अपने पुरुष सह्योगिओं के बीच औरत पर अत्याचार के मामलो पर चर्चा होती है तो सबसे पहली बात जो उनके मुह से निकलती है की मैडम एक औरत ही औरत की दुश्मन है। उनकी ये बात काफी हद तक सही भी है लेकिन यहाँ इससे भी बड़ा दुर्भाग्य ये है वो दुश्मन औरत उस औरत के अपने परिवार या आस पास की होती है। इतना ही नहीं चोट देने वाले अपनों में केवल औरतें ही शामिल हो ऐसा भी नहीं है। उसमे वो अपने करीबी पुरुष भी पीछे नहीं रहते जिन पर एक औरत सारी ज़िन्दगी भरोसा करती है। तब इस शेर की ये पंक्तियाँ याद आती हैं की...
हमे तो अपनों ने लुटा, गैरों में कहाँ दम था....मेरी कश्ती डूबी वहां....जहाँ पानी कम था
अभी हाल ही में गाजिआबाद में दो ऐसे मामले सामने आये जो ये समझने के लिए काफी थे की एक औरत किस तरह अपनों से ही अपने अधिकार के लिए संघर्ष करती है। एक मामला ऐसी विवाहिता का था जिसके पति ने उसे उसके मायेके सिर्फ इसलिए छोड़ दिया क्यूंकि वो उसकी दहेज़ की मांग पूरी नहीं कर पाई थी। बात इतने पर ही ख़त्म नहीं हुई जब उस महिला का भाई उसे अपने साथ लेकर उसके पति के घर आया तो उसके लिए घर के दरवाजे तक नहीं खुले। उस विवाहिता ने पूरी एक रात अपने घर की चौखट पर बैठकर खुले आसमान के नींचे बिताई। आखिर में थक हारकर उसे दिल्ली में रहने वाले अपने एक रिश्तेदार के यहाँ जाना पड़ा। यहाँ बता दे की दहेज़ के लिए अपनी पत्नी से ऐसा व्यवहार करने वाला खुद एक बहु राष्ट्रीय कम्पनी में इन्जिनेअर था। सोचिए क्या शिक्षा भी औरत के प्रति लोगो का नजरिया बदल पाने में सफल हो पा रही है? यहाँ बात उस समाज की भी जो ये सब देख कर भी मूक रहा।
दूसरी घटना एक ऐसी औरत की जिसका आरोप है की उसी के पति ने उसकी अश्लील सीडी बना ली और फिर किसी और औरत से शादी कर ली। अब उसे धमकी दे रहा है की अगर उसने दूसरी शादी की शिकायत किसी से की तो वो उसकी सीडी सार्वजनिक कर देगा। ज़रा सोचिये की क्या एक औरत अब अपने पति पर भी विश्वास न करे?
ये दोनों घटनाएं शायद ये समझने के लिए काफी हैं की उसका शोषण करने वाले औरत या पुरुष किसी विशेष बिरादरी के नहीं होते बल्कि उनकी एक ही बिरादरी होती है और वो है 'अपने'।
अगर इसके दुसरे पहलुओं पर भी नज़र डालें तो देखिये की जब एक बेटी का जनम होता है और वो जब से होश संभालती है तभी से उसके सामने आये दिन ये बोला जाता है की बेटी तो पराया धन होती है। या फिर उसे हिदायत दी जाती है की अपने सपने अपने घर जाकर पुरे करना। और जब शादी के बाद बेटी दुसरे घर जाती है और सोचती है की अब वो अपने घर जा रही है तब पता चलते है की वहां भी उसके लिए स्वीकारोक्ति नहीं के बराबर है। वहां उसे अपनापन मिलता ही नहीं।
और तब वो झूलती है दो घरो के बीच में इस कशमकश के साथ की आखिर उसका घर कौन सा था? कहीं माँ बाप ही उसकी पढाई के साथ समझौता करते हैं तो कहीं उसे अपने खाने के साथ समझौता करना पड़ता है। जहाँ उसे उच्च शिक्षा भी दी जाती है, वहां भी करियर बनाने का फैसला उसके ससुराल वाले करते हैं। अगर कहें तो बचपन से ही उसके साथ समझौता करने वाले, उसके सपनो को सीमित करने वाले कोई और नहीं उसले 'अपने' ही होते हैं।
फिर चाहे मामले बचपन में सपनो को कुचलने के हो या दहेज़ के लिए प्रतारित करने के या फिर रिश्तो में धोका धडी के।
यहाँ कुछ लोग कह सकते हैं की अज औरत की तस्वीर उतनी ख़राब नहीं रही है। लेकिन ज़रा सोचिये की अगर गाजिआबादजैसे महानगर का ये हाल है तो बाकी इलाको की तस्वीर क्या होगी????
प्रतीक्षा
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A good point raised. In this aspect I think the west is better than India. There you can see the actual equality, how it should be. In our society everyone is trying to take advantage for selfish deeds. In some cases it is a man and in the other cases women are exploiting the laws made in favor of them. But yea, it is true that someone is taking undue advantage in a lot of cases (definitely all). We desperately need some social reforms where every entity in society can enjoy its freedom and rights.
जवाब देंहटाएंVery well written. bravo.
I agree with Kchitiz...whether it's man or woman, no one wants to miss any opportunity to prove one's upper hand over the other. You can divide our society into two broad categories, i.e. Priviledged and Under-priviledged, where priviledged ones are like parasites who always need a host (under-previledged)to exploit for their existence. However, I appreciate your attempt to see the society from women's perspective and I am always with you in the journey that you have started with this this blog...
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंye bilkul sach hai ek aurat hi aurat ki dushman hai,bahut kam ladkiya ek dusre ka support karti hai..ek dusre ko bilkul sehen nhi karti ladkiya...
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